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सांग का स्वांग

हरियाणवी जन-जीवन के रंगों में रंगना हो या फिर भूली-बिसरी लोककथाओं, गाथाओं से रूबरू होना हो तो आनंद लें सांग का। इंटरनेट के युग में भी हमारी इस धरोहर की चमक चमचम। टीवी, थिएटर में मज़ा ढूंढने वाली पीढ़ी एक बार किसी सांग मंडली के स्वांग को देख ले, यकीनन प्रभावित होगी। हमारी अमीर थाती से जुड़े ये सांग कभी सामाजिकता का पाठ पढ़ाते, कभी हंसाते, कभी रुलाते, कभी अध्यात्म तक का चरम अहसास दिलाते।
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हरियाणवी जन-जीवन के रंगों में रंगना हो या फिर भूली-बिसरी लोककथाओं, गाथाओं से रूबरू होना हो तो आनंद लें सांग का। इंटरनेट के युग में भी हमारी इस धरोहर की चमक चमचम। टीवी, थिएटर में मज़ा ढूंढने वाली पीढ़ी एक बार किसी सांग मंडली के स्वांग को देख ले, यकीनन प्रभावित होगी। हमारी अमीर थाती से जुड़े ये सांग कभी सामाजिकता का पाठ पढ़ाते, कभी हंसाते, कभी रुलाते, कभी अध्यात्म तक का चरम अहसास दिलाते। तीज-त्योहारों पर आज भी रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजे विदूषक, नायक-नायिका हमारे दिल धड़का जाते हैं।
मोहन मैत्रेय
देश के विभिन्न प्रदेशों में लोक नाट्य की विभिन्न परम्पराओं का प्रचलन है। ब्रज में रासलीला, गुजरात में भवाई, मध्य प्रदेश में पंडवानी, बंगाल में जात्रा, महाराष्ट्र में तमाशा, तमिलनाडू में पागलवेशम, मैसूर में यक्षगान, उत्तराखण्ड में पांडव लोकनाट्य प्रचलित हैं, तो सांग हरियाणा का प्रिय लोकनाट्य रहा है। किसी समय हरियाणा में ‘सांग’ की धूम थी, परन्तु नयी पीढ़ी की रुचि इस लोकनाट्य के प्रति नकारात्मक सी है। शिक्षण संस्थाओं के युवा-समारोहों में कभी-कभी इसके संक्षिप्त, कहना उचित होगा, विकृत रूप के दर्शन हो जाते हैं। यह परम्परा लगभग लुप्त ही हो गई है। ‘सांग’ शब्द का मूलरूप ‘स्वांग’ है- दूसरे की हू-ब-हू नकल करने हेतु धरा गया वेश या रूप। पाश्चात्य विद्वानों प्रो. कीथ, कोनो, लेवी, हिलब्रांट आदि की मान्यता है कि लोक प्रचलित स्वांग वैदिक कर्म-काण्ड प्रधान रूपकों तथा संस्कृत नाटकों से भी पहले अस्तित्व में आए। सन 1531-32 के आस-पास महाप्रभु वल्लभाचार्य ने प्राचीन वर्णित कृष्ण लीलाओं को रासलीला के रूप में प्रचारित कर गीति-नाट्य की परम्परा चलाई। मौलाना गनीमत (सन 1658-1707) ने अपनी मसनवी ‘नौरंग-ए-इश्क’ में सांग या नकल का सांगोपांग वर्णन किया है।
हरियाणा में सांग-लेखन का काम सन 1750 में सर्वप्रथम किशनलाल भाट ने शुरू किया और इसका प्रारम्भिक रूप ‘मुजरे’ का था। सन 1800 के आस-पास बंसीलाल सांगी ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्नीसवीं शती में अली बख्श के सांगों की मेरठ, मेवाड़, अहीरबाटी तथा हरियाणा में धूम थी। वास्तव में हरियाणा की सांग परम्परा के प्रवर्तक सोनीपत निवासी पण्डित दीपचन्द माने जाते हैं, जिन्होंने सांग को नयी दिशा दी। इनके सांग जानी चोर, नल दमयंती, गोपीचन्द, राजा भोज, उत्तानपाद, हरिश्चन्द्र बहुत चर्चित रहे। लक्ष्मी चन्द सांग की दुनिया के उज्ज्वल नक्षत्र थे। आप प्रतिभावान थे और रागनी के वर्तमान रूप के आप ही जनक माने जाते हैं। पण्डित जी ने हरिश्चन्द्र, सेठ ताराचन्द, नल दम्ायन्ती, भूप-पुरंजन, हीर-रांझा, शकुन्तला, उत्तानपाद, पद्मावत, शाही लकड़हारा, चन्द्र किरण, जानी चोर आदि बीस सांगों की रचना एवं प्रस्तुति की। सांगों में संयोग एवं वियोग-श्रृंगार के दोनों पक्ष अपनाए गए हैं। इनके सांगों में दाम्पत्य जीवन के लुभावने चित्र हैं। पण्डित लक्ष्मी चन्द (लखमी चन्द) की विरासत को उनके पुत्र तुले राम ने ठीक प्रकार से संजोए रखा। कालांतर में सांग-प्रस्तुति में अनेक परिवर्तन भी हुए। ‘सांग’ वास्तव में हरियाणा का ‘कौमी नाटक’ बन गया था।
हरियाणा में सांग के धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश से परिचित होना भी आवश्यक है। डॉ. शंकरलाल यादव का कथन है कि लौकिक स्वांग के किसी धार्मिक रूप को सोलहवीं शती के मध्य वैष्णव सन्तों ने अपनाया था। इस रूप के दर्शन सौहार्द की धरती थानेसर में सांगों की प्रस्तुति में होते हैं। थानेसर (स्थानेश्वर या स्थाणीश्वर) से अभिप्राय है भगवान शिव से सम्बद्ध नगर। प्राचीन ग्रन्थों में थानेसर को जम्बूद्वीप के सोलह जनपदों में से कुरुक्षेत्र का ही एक भाग बताया गया है। यह सरस्वती और दृषद्वती नदियों के मध्य स्थित ब्रह्मावर्त नामक क्षेत्र का विशिष्ट धार्मिक स्थल है।
सांग की धार्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के ध्वजवाहक अहमदबख्श के योगदान की चर्चा से पूर्व थानेसर में इस परम्परा के सांग प्रस्तुत करने वाले दो दलों या अखाड़ों का परिचय आवश्यक है। यहां के दो अखाड़े थे- भादर का अखाड़ा तथा नानक अखाड़ा। अहमदबख्श भादर के अखाड़े से सम्बन्धित थे और इस वर्ग द्वारा अपनी प्रस्तुति वर्तमान सब्जी मंडी में की जाती थी। दोनों प्रकार की प्रस्तुतियों में काव्य-सौन्दर्य को प्रधानता प्राप्त थी और साधन था चम्बोला गायन। नानक अखाड़े के सांगों में संगीत-स्वर, ताल, लय प्रमुख थे।
हरियाणा में अन्य स्थलों पर प्रस्तुत किए जाने वाले सांगों से यहां के सांगों की विलक्षणता शैली, प्रक्रिया तथा व्यवस्था की दृष्टि से थी। लगभग एक सौ पचास वर्ष पुरानी परम्परा में कलाकार अपने कार्य को कला-साधना के रूप में लेते थे। दृष्टिकोण कतई व्यावसायिक नहीं था। किसी अन्य नगर में इन कलाकारों द्वारा सांग प्रदर्शन तो दूर की बात थी, अपने नगर में भी सदैव स्थल एक ही रहता। कलाकार मुख्यतः मध्यवर्गीय सम्पन्न परिवारों से सम्बन्धित होने के नाते आवश्यक वस्त्राभूषण आदि की व्यवस्था भी अपनी ओर से करते थे। नगाड़े तथा ढोल वालों को राशि अवश्य दी जाती।
अन्य स्थलों के सांगों में पहले महिलाओं का अभिनय पुरुष ही करते थे, परन्तु बाद में महिलाएं भी प्रस्तुति में भाग लेने लगीं, परन्तु थानेसर के सांग पुरुषों तक ही सीमित रहे। थानेसर के सांग सर्वदा चम्बोला शैली में ही होते, परन्तु अन्यत्र शुरुआत इस शैली से हुई और फिर रागनियों डोलियां, बहरे तबील, फिल्मी शैली को अपना लिया गया। दोनों प्रकार के सांगों में चम्बोला में भी विविधता थी। थानेसर में प्रयुक्त चम्बोला आठ पंक्तियों का होता- दो पक्तियां दोहे की, चार पंक्तियां चलत की तथा अन्तिम दो पंक्तियां मुकताल की। अन्यत्र चम्बोला में केवल चार पंक्तियां ही होतीं। थानेसर के सांगों में कथ्य सजीव होता, जबकि अन्यत्र प्रभावोत्पादकता लाने हेतु विदूषक का सहारा लिया जाता। थानेसर के सांगों में शालीनता का ध्यान रखा जाता, टोकिये नहीं होते, भक्तिरस, वीररस, करुणरस की प्रधानता होती। अन्यत्र शृंगाररस ही प्रधान होता। थानेसर के सांगों की भाषा हिन्दी होती, जिसमें स्थानीय बोली का पुट तथा कभी-कभी उर्दू तथा पंजाबी शब्दों का भी प्रयोग होता। अन्यत्र सांग बांगरू या जाटी में होते। थानेसर में गैर व्यावसायिक सांग केवल फाल्गुन में ही खेले जाते जबकि अन्य व्यावसायिकता के लक्ष्य से सारा वर्ष प्रस्तुत किये जाते।
थानेसर की विलक्षण सांग परम्परा का प्रमुख सूत्रधार अहमदबख्श अपनी सामान्य वेशभूषा- सफेद धोती-कुर्ता, काला जूता तथा सिर पर जरी की टोपी- प्रथम दृष्टि में नहीं लगता था कि यह एक प्रतिभावान कलाकार है। गाने-बजाने वाली जाति ‘कंचन’ से सम्बन्धित अहमदबख्श मुसलमान होते हुए भी हिन्दू धर्म शास्त्रों में पारंगत, हिन्दी, उर्दू, ज्योतिष में भी महारत रखता था। देवी-देवताओं के प्रति निष्ठावान थानेसरी ने, वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ के आधार पर सांग शैली में रामायण की रचना की। आरम्भ में भारतीय परम्परा का पालन गणेश वन्दना से हुआ हैः-
सुखदायक मंगलकरण विघ्न विनाश गणेश
निर्गुण अधीन इस दास की रक्षा करो हमेश
इसके साथ ही श्री कृष्ण की सांग सोरठा में
अर्चना की हैः-
कृष्ण-कृष्ण मैं एक-एक पल रटता रहूं निसिदिन आठों याम।
सांग प्रणाली में रचित रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का गुणगान रोचक ढंग से हुआ है: –
पूर्ण रघुराई -रूप शशि रवि की न्याई
क्रोध हीन सुत गुणी जाया कौशल्या माई।
भगवान राम के कृत्यों का गुणगान प्रतिवर्ष देशभर में सम्पन्न होने वाली राम-लीला में किया जाता है। भारतीय परम्परा का निर्वाह करते हुए ‘सांग’ शैली में इस कवि ने इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाया है। अहमदबख्श रचित रामायण के आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंका काण्ड आदि में 1673 चम्बोलें हैं। रावण-वध के पश्चात केवल दो चम्बोलों में ही अपनी रामायण को विश्राम दे दिया है। समापन यों है-अब कहां तलक कथन करूं मैं मूर्ख निदान।’ ‘मोक्ष अहमद प्रभु चाहता’ मानो प्रभु ने उसके कृतित्व से ही प्रसन्न होकर कवि को मोक्ष का वरदान दिया। अहमदबख्श ने अपने भक्ति-परक काव्य की रचना और उसकी मंच पर प्रस्तुति कर थानेसर को गौरव प्रदान किया है।

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